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शनिवार, 7 जनवरी 2023

देवनागरी लिपि का उद्भव एवं विकास

देवनागरी लिपि का उद्भव -
 देवनागरी लिपि का उद्भव आठवीं सदी के मध्य  कुटिल लिपि से होना पाया जाता है ।इसका प्रचार उत्तर भारत में नवीं सदी के अंतिम चरण से मिलता है। नागरी  का उल्लेख जैन ग्रंथ नंदी सूत्र में सबसे पहले मिलता है। देवनागरी की प्रथम स्पष्ट झलक आठवीं शताब्दी के राजा दंतिदुर्ग द्वितीय के दान पात्रों में दृष्टिगोचर हुई। राजा दंतिवर्मन ने 747 ईस्वी से 753 ईस्वी तक दक्षिण में राज्य किया। इन्होंने 753 में अपने तीन ताम्रपत्र अंकित करवाएं ।जो समनगढ़ के पहाड़ी दुर्ग से प्राप्त हुए। यह दुर्ग बेलगाँव से 24 मील दूर कोल्हापुर जनपद में स्थित है। इस दक्षिणी देवनागरी को नंदीनागरी के नाम से संबोधित करते थे। नंदी नगर बेंगलुरु से 36 मील उत्तर की ओर स्थित है। इस देवनागरी लिपि का नंदी नगर में अधिक प्रयोग रहा है । इस कारण यह लिपि  नंदी नागरी कहलाने लगी ।उत्तरी भारत में देवनागरी लिपि का प्रयोग सबसे पहले कन्नौज के प्रतिहार वंशी राजा महेंद्र पाल के 798 ईसवी के दानपात्र में मिलता है। इसके बाद तो अनेक राजवंशों के शिलालेखों एवं दान पात्रों में तथा सामान्य जन के लेखों में देवनागरी का प्रयोग दिखाई देने लगा । नागरी लिपि को ही नागर या *देवनागरी लिपि* कहा जाता है। 

इसके नाम के संबंध में बहुत से मतभेद हैं जैसे-
1. गुजरात के नागर ब्राह्मण द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम नागरी पड़ गया ।
2.प्रमुखतः  नगरों में प्रचलित होने के कारण इसे  नागरी कहा  गया।
3. कुछ लोगों के अनुसार ललित बिस्तर में उल्लिखित नागर लिपि नागरी लिपि है।
3. तांत्रिक चिह्न  देव नगर से साम्य होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया ।
4. आर. श्याम शास्त्री के अनुसार देव नगर से उत्पन्न होने के कारण ही यह देवनागरी और फिर नागरी  कही गई।

 उपर्युक्त सभी मत अनुमान पर आधारित हैं। अतएव किसी को भी बहुत प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
 *देवनागरी लिपि का विकास* 
देवनागरी लिपि निरंतर विकास के पथ पर अग्रसर होती रही है। डॉक्टर गौरीशंकर ओझा के अनुसार 10 वीं सदी की लिपि में अ, आ, क ,म, य, ष, स के सिर दो हिस्सों में विभक्त मिलते हैं परंतु 11 वीं सदी में नागरी लिपि के यह दोनों अंश मिलकर सिर की एक लकीर बन जाती है । प्रत्येक अक्षर का शीर्ष इतना लंबा रहता है कि जितना उस अक्षर की चौड़ाई रहती है । 11 वीं सदी की नागरी वर्तमान नागरी  से मिलती है ।12 वीं सदी से वर्तमान रूप स्थिर सा मिलता है। केवल इ, घ की  आकृति में पुरानापन नजर आता है। ओ, ए ,ऐ, औ  की मात्राओं में कुछ अंतर प्राप्त होता है । वैसे भाषा विज्ञान की ध्वनि विषयक सूक्ष्मताओं की दृष्टि से इसे बहुत वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता । इसी कारण डॉ सुनीति कुमार चटर्जी  जैसे विद्वान इसे छोड़कर रोमन लिपि को अपना लेने के पक्ष में हैं।
पूरे हिंदी प्रदेश की यह लिपि है । मराठी भाषा में भी कुछ परिवर्तन के साथ यह प्रयुक्त होती है। संस्कृत, पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश के लिए भी यही लिपि प्रयुक्त होती है। 14 वीं 15 वीं शताब्दी में नागरी लिपि का विकास दो स्रोतों में विभक्त हो गया था।
 प्रथम -पूर्व शाखा । 
द्वितीय- मध्य देशीय शाखा ।
पूर्व शाखा -----
1.बिहारी लिपि- यह लिपि बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले में प्रचलित है ।लगभग सौ -डेढ़ सौ वर्ष पूर्व लिपियों का अत्यधिक प्रचार था। कायस्थ जाति के ही अधिकतर लोग कार्यालयों और कचहरियों में लिखने पढ़ने का कार्य करते थे। इसलिए इसका नाम कैथी प्रचलित हुआ। इसका प्रमुख क्षेत्र बिहार है। इसके तीन स्थानीय रूप भी हैं ।
1.भोजपुरी कैथी  2.तिरहुति कैथी 3.मगही कैथी
 मैथिली लिपि_इसका क्षेत्र मिथिला है। यह बंग्ला से बहुत मिलती-जुलती है ।
 मध्यदेशीय शाखा के बारे में स्थान की दृष्टि से विचार किया जाए तो देवनागरी मध्यप्रदेश की लिपि है किंतु इस क्षेत्र में देवनागरी के अतिरिक्त भी अन्य लिपियाँ प्रचलित हैं । जैसे-
 *1.गुजराती लिपि-* यह संपूर्ण गुजरात के कार्यालयों और मुद्रण के लिए प्रयुक्त होती है ।वास्तव में यह पूर्व देवनागरी का ही विकसित रूप है।
 *2.महाजनी लिपि-* भारत में जहां कहीं भी मारवाड़ी है वह अपना बहीखाता इसीलिए भीम लिखते हैं यह लिपि शीघ्र लेखन में प्रयुक्त होती है।
 *3.मौड़ी लिपि-* इसका प्रचार महाराष्ट्र में कुछ दिनों पूर्व पर्याप्त मात्रा में था। किंतु  आजकल उसका प्रचार कम हो गया है । इस प्रकार 10 वीं शताब्दी से लेकर आज तक देवनागरी के स्वरूप में परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। चूंकि भाषा और समाज सदैव उन्नति की ओर अग्रसर होते रहते हैं अतः देवनागरी में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । किंतु इसकी प्रधान *कमियाँ* निम्न प्रकार हैं-
1. इसमें  कुछ  अक्षर या लिपि चिह्न  आज के उच्चारण की दृष्टि से व्यर्थ हैं।जैसे  'ऋ' का  'रि' है ।'ष' का  उच्चारण 'श' है।
2.'ऋ' और 'ष'  की आवश्यकता नहीं थी, 'रि' और 'श' से काम चल सकता था।
3.ख में र और व के भ्रम की संभावना है।
अतः इसके लिए पूरे चिह्न  की आवश्यकता है।  'व' का उच्चारण दो प्रकार का है - 1.दो होठों से।  
2. दांत और होंठ से ।परंतु चिह्न  एक ही है। अथवा 'व'  के एक और चिह्न  की आवश्यकता है।
4. संयुक्त व्यंजनों के रूप में बड़े गड़बड़ियां हैं - जैसे प्रेम में लगता है कि 'र' आधा और 'प' पूरा है पर यथार्थतः  इसका उल्टा है। इस पद्धति में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
5. 'इ' (।ि )की मात्रा बङी  अवैज्ञानिक है । इसे जिस स्थान पर लगाया जाना चाहिए वहाँ लगाना संभव नहीं है । उदाहरणार्थ चंद्रिका शब्द लें। इसे तोड़कर इस प्रकार लिख सकते हैं -
 च्+अ+।ि+न्+द्+र्+क्+आ
यहाँ  स्पष्ट है कि मात्रा 'न्' के पहले लगी है पर इसे र के बाद लगना चाहिए ।
रोमन लिपि  में इसे शुद्ध लिखा जाता है - CHANDRIKA.
 इस अशुद्धि के निवारण के लिए कोई रास्ता निकलना चाहिए।
6. 'र' कार के 'र' , 'द्र' , तथा रेफ वाले र केवल एक के ही प्रचलन की आवश्यकता थी।
7.  क्ष, त्र, ज्ञ आदि स्वतंत्र लिपि चिन्ह की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह स्वतंत्र ध्वनियाँ  ना होकर संयुक्त व्यंजन मात्र हैं।
8.उ,ऊ,ए, ऐ की मत्राएँ नीचे या ऊपर लगती है पर यथार्थतः इन्हें व्यंजन के आगे लगना चाहिए। इसके लिए भी कोई रास्ता निकालना चाहिए।
9. कुछ अक्षरों के रूप में प्रचलित हैं-  ल,अ,प्र,ण,औ, या इनमें से एक ही स्वीकार करने तथा दूसरे को निकाल देने की आवश्यकता है।
10. कुछ स्वरों के कई रूप हो गए हैं परंतु उनके लिए या उनकी मात्राओं के लिए चिह्न  नहीं है। 'समझना'  में 'म' में 'अ' है । अंत्य 'अ' जिसका उच्चारण प्रायः  नहीं के बराबर होता है । जैसे राम के 'म' में  'अ' है।

*देवनागरी लिपि की विशेषताएँ* नागरी लिपि के लंबे विकास के पश्चात आज इस रूप में देवनागरी विद्यमान है , उसकी अपनी निजी विशेषताएँ हैं। यह अपनी  वैज्ञानिकता के कारण प्रसिद्ध है और इसी कारण यह  आर्य सर्वव्यापी तथा राष्ट्रलिपि  के रूप में विख्यात है --
1.देवनागरी लिपि की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें जो बोला जाए वही लिखा जाए ,तथा  जो लिखा जाए वह बोला जाए । यह बात संसार की अन्य लिपियों में नहीं पाई जाती है ।जैसे रोमन में लिखते हैं BUT और पढ़ते हैं 'बुट', लिखते हैं KNOW और पढ़ते हैं 'नो'।
इसमें एक ध्वनि  के लिए एक ही लिखित रूप स्वीकार किया जाता है। यह  रोमन लिपि की भांति  नहीं है। यहाँ 'क' की अभिव्यक्ति के लिए C ,K, Q  तथा 'ज' ध्वनि के लिए J, G, Z  आदि कई वर्ण मिलते हैं ।
3.नागरी लिपि का प्रत्येक वर्ण अपनी पूर्णता के साथ  उच्चरित होता है ,परंतु रोमन में ऐसा नहीं होता है,जैसे HALS में ' L' मूक है परंतु KNEE ( नी), KNOW(नो), इनमें K वर्ण मूक है ।
4.नागरी की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उसके वर्गीकरण का वैज्ञानिक रूप है । नागरी वर्णों को मुख्यतः दो वर्णों में विभाजित किया जाता है। इसमें स्वरों को प्रारंभ में रखा गया है और व्यंजनों को अंत में ।
संसार की अन्य लिपियाँ उच्चारण तथा प्रयोग की दृष्टि से इतनी वैज्ञानिक नहीं है । इसमें सभी स्वर और व्यंजन मिलाए जाएँ  तो 47 अथवा 48 चिह्न पाए जाते हैं । जो लगभग भारत की सभी लिपियों में विद्यमान हैं।
5. यह संसार की अनेक भाषाओं को व्यक्त करने की क्षमता रखती है। देवनागरी वैज्ञानिकता की कसौटी पर नागरी लिपि का प्रत्येक पक्ष वैज्ञानिकता के सुदृढ  आधार पर टिका है। देवनागरी लिपि तो विश्लेषण एवं संयोग  दोनों धरातलों पर सरलतम वैज्ञानिक पद्धति का परिचय देती है।
देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का सर्वप्रथम आधार एक ध्वनि के लिए ही लिपि संकेत का प्रयोग है । इस गुण के कारण प्रयोक्ता को लिपि प्रयोग के समय पर्याप्त सुगमता का अनुभव होता है । रोमन लिपि वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है क्योंकि उसमें एक ध्वनि के लिए अनेक संकेतों का प्रयोग होता है 'क' के लिए ( अथवा K  जैसे key, cake, एवं  chemistry)
देवनागरी लिपि में मूल स्वरों के  हृस्व और दीर्घ रूपों का प्रयोग होता है।अ,आ,इ,ई, उ,ऊ इस स्पष्ट भेद के कारण भाषा की विभिन्न ध्वनियों को सूक्ष्मता से अंकित किया जा सकता है। यह विशेषता देवनागरी की वैज्ञानिकता का पुष्ट प्रमाण है। इसी वैज्ञानिकता के कारण कल , काला, कला ,काल जैसे भिन्नार्थक किंतु वर्तनी की दृष्टि से प्रायः समरूपी शब्दों को शुद्धता से लिपिबद्ध किया जा सकता है।
रोमन लिपि में हृस्व और दीर्घ स्वरों की स्पष्ट अभिव्यक्ति की व्यवस्था का सर्वथा अभाव है  । परिणाम स्वरूप रोमन में लिखित JALA को जल, जाल ,जाला, किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता है। अतः स्पष्ट है कि देवनागरी में हृस्व और दीर्घ स्वरों की अलग-अलग व्यवस्था के कारण शब्दों को स्पष्ट रूप में लिख पाना संभव है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक चिन्ह में प्रायः एकरूपता होती है।
उदाहरण के लिए प लिपि संकेत को शिरोरेखा युक्त तथा शिरोरेखा विहीन दोनों ही अवस्थाओं में एकरूपता दिखाई देती है। रोमन लिपि में प्रत्येक चिन्ह के कैपिटल तथा  स्माल दो रूप होने के कारण पर्याप्त विविधता पाई जाती है । इस प्रकार स्पष्ट है कि देवनागरी प्रायः समस्त कसौटियों पर वैज्ञानिक लिपि सिद्ध होती है।

गुरुवार, 8 मार्च 2018

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मैं हूँ नारी . . . . . . मैं हूँ स्वार्थी . . . . .


आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर चारों और एक त्यौहार जैसा दृश्य  है | चाहे फेसबुक हो , चाहे  ट्विटर हो या व्हट्सप हर और लोग एक दूसरे को  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की बधाई दे रहे हैं | जगह - जगह  संस्थाएँ  महिला सशक्तिकरण तथा उनके सम्मान  के लिए कार्यक्रम कर रही हैं | महिलाएँ भी आपस में मिलजुलकर इस दिन को विशेष बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ना  चाहती हैं | नेता लोग अपने भाषण  महिला को त्याग  मूर्ति ,बलिदान की देवी आदि नामों  से सम्मानित  भी करते  हैं |  जैसे ही मार्च का महीना आरम्भ हुआ वैसे ही लोगों की  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को लेकर प्रतिक्रियाएँ  आने लगती हैं | जावेद अख्तर जी ने कुछ समय पहले एक बड़ी ही सटीक बात कही | उन्होंने कहा की '' एक महिला का सम्मान इसलिए मत करो की वो माँ है या बेटी है या फिर आपकी पत्नी है ,वो सबसे पहले एक स्त्री है ,नारी है ,महिला है |'' 
पहले एक स्त्री केवल घर के  कामों में ही बधीं हुई थी तब वह त्याग ,समर्पण ,बलिदान  इन भारी शब्दों का बोझ उठाने में सक्षम थी | पर आज हमारे पास घर और बाहर दोनों की जिम्मेदरी होती है | हम इन भारी शब्दों का बोझ नहीं उठा पाएँगे  और क्यों उठाएँ ? हम कब तक त्याग की मूर्ति बने रहेंगे और क्यों  ?
हमें स्वार्थी बनना  होगा ,आप अपने आस - पास देखो हर कोई स्वार्थी है ,जो स्वार्थी है वही खुश है और वह दूसरों को भी खुश रख पाता  है  | सबसे पहले आप हमारी प्रकृति को ही देखो ये पेड़ अगर स्वार्थी ना हो तो ये हरा - भरा नहीं रह  पाएगा | ये अपनी जड़ों को फैलाता ही रहता है और अधिक पानी इकठ्ठा करने के लिए |  अगर ये  ऐसा नहीं करेगा तो न तो ये  किसी को छाया दे पाएगा और न ही किसी को फल | प्रकृति  का नियम ही है स्वार्थी  होना | हम दूसरों के लिए तभी कुछ कर पाएँगे  जब हम अपने लिए कुछ करेंगे , अपने आपको खुश रखेंगे और अपने आपको खुश रखने के लिए हमें  स्वार्थी बनना ही पडेगा |  तो आप भी स्वार्थी बनिए और अपने लिए समय निकालिये ,चोबीस घंटों में एक घंटा तो अपने आपको दीजिये | स्वार्थी बनकर खुश रहिये और दूसरों को भी खुश रखिये | आप सभी को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ  | 

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

३३ - ४२ ज्ञान की महिमा

३३ - ४२ ज्ञान की महिमा । 

 श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप |
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ||
अर्थात्  हे परंतप अर्जुन !द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है ,तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण
 कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ॥  ३३ ॥ 

तदिद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ||
अर्थात् उस ज्ञान को  तत्वदर्शी ज्ञानियों  के पास जाकर समझ , उनको भली भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से , उनकी सेवा करने से,और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्व को भली भाँति जानने वाले ज्ञानी  महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे ॥ ३४ ॥ 

यज्ज्ञात्वा  न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव |
येन भूतान्यशेषेण द्रक्षस्यात्मन्यथो  मयि ||
अर्थात्  जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा तथा हे अर्जुन !जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों  को निःशेष भाव से पहले अपने में और पीछे मुझ सच्चिदानंदघन  परमात्मा में देखेगा  ॥ ३५ ॥ 

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः |
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ||
अर्थात् यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है ;तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण  पाप -समुद्र से भली- भांति तर जायेगा ॥ ३६ ॥

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||
 अर्थात् क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों  को भस्ममय कर देता है  ,वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों  को भस्ममय कर  देता है ॥ ३७ ॥
 
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ||
अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह कुछ भी नहीं है । उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्म योग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने - आप हि आत्मा में पा लेता है ॥३८ ॥

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । 
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ 
  अर्थात् जितेन्द्रिय , साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के-तत्काल ही  भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ॥ ३९ ॥

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं  संशयात्मनः ||
 अर्थात् विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है।ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिये न यह लोक है ,न परलोक है और न सुख ही है।।४०।।

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।
अर्थात् हे धनञ्जय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है,ऐसे वश में किये हुए अंतः करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।।४१।।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्तवैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।
अर्थात् इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।।४२।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसन्न्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः।।४।।

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नवरात्रारम्भ गुड़ी पड़वा

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा गुड़ी(विजय पताका) पड़वा
नवरात्र का प्रारम्भ ही हिन्दू नववर्ष का भी प्रारम्भ होता है । मान्यता है की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि का आरंभ हुआ था । इस समय प्रकृति का सुन्दर्य और सकारात्मक ऊर्जा दोनों ही बहुत रमणीय होते हैं। ये ऊर्जा मानो हमें सक्रिय होने का सन्देश देती है । हिन्दू नव वर्ष या नव संवत्सर का प्रारम्भ हो रहा है । इसे विक्रम संवत भी कहा जाता है । ऐसी मान्यता है की राजा विक्रमादित्य ने इसकी शुरुआत की थी ।
पौराणिक ग्रंथों की मान्यता है कि इस दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी । ब्रह्मपुराण में लिखा है 
''चैत्र मासि  जगद् ब्रह्मा संसर्ज प्रथमे अहनि |
शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ||
अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि कि रचना चैत्र मास के प्रथम दिन प्रथम सुर्योदय होने पर की | इस दिन वतावरण  मे उष्मा का प्रवाह  तीव्र होता है | इस ऊर्जा प्रवाह  के प्रभाव से प्रत्येक जीव मात्र,वनस्पतियाँ तथा पुष्पों  में भी नई  ऊर्जा गतिमान होती है।ऐसी मान्यता है कि शालिवाहन नाम के एक कुम्हार के लड़के ने मिटटी के सैनिकों की सेना बनाई और उसमें प्राण फूंक दिए और इस सेना की मदद से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया । इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक  का प्रारम्भ हुआ । कई लोगों की मान्यता है की इसी दिन श्रीराम ने बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई थी । बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर- घर में उत्सव मनाकर ध्वज(गुड़ियाँ)फहराई । इसी लिए  इसे गुड़ी पड़वा  के नाम से भी जाना जाता है ।  
 दुर्गा शक्ति का पर्याय है और हर किसी को शक्ति चाहिए । किसी को प्रेम की शक्ति ,किसी को ज्ञान की शक्ति ,किसी को सत्य की शक्ति और किसी को भक्ति की शक्ति चहिये। देवी दुर्गा के स्वरूप में हमें इन सभी शक्तियों  का आभास होता है । हममें  भी सभी शक्तियाँ अन्तर्निहित है किन्तु यदि इन शक्तियों  के होते हुए भी जब तक हम मानसिक रूप से उसे स्वीकार नहीं करते तब तक समस्त शक्तियाँ हमारे लिए व्यर्थ हैं । नवरात्र में माँ दुर्गा की आराधना का यही अर्थ है कि हम अपने भीतर की शक्ति को पहचानें और उसे सही दिशा में कार्यान्वित करें । इस समय  प्रकृति नई  ऊर्जा से सराबोर होती है । प्राणियों  में भी यह ऊर्जा स्फूर्ति ,उल्लास और क्रियाशीलता बनकर परिलक्षित होती है । इस शक्ति का उपयोग हमें सकारात्मक  और सृजनात्मक कार्यों में करना चाहिए न कि नकारात्मक और विध्वंशक कार्यों में।

शनिवार, 5 मार्च 2016

संस्कृत में विज्ञान

कन्हैया लाल मुंशीलाल हिंदी एवं भाषा विज्ञान विद्यापीठ ,डॉ .भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय,आगरा में 15 दिवसीय संस्कृतविज्ञान प्रदर्शनी एवं संस्कृत संभाषण प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया है । यह बहुत ही  प्रसंशनीय कार्य है। रोज संभाषण की कक्षा में जाकर अत्यंत गौरव की अनुभूति होती है ।वहाँ विद्वानों और विदुषी  के ज्ञानवर्धक और  बहुत प्रेरक विचार जानने का अवसर भी प्राप्त होता है। जो कि मेरे लिए बहुत ही हर्ष का विषय है।जैसे प्राचीन समय में हमारे देश के  पशु - पक्षी भी  संस्कृत में बात करते थे,और कहते हैँ संस्कृत सभी भाषाओं का उद्गम स्थल है  अर्थात् जननी है तो जिस प्रकार माता - पिता यदि बहुत वृद्ध भी हो जाएँ तो भी उनकी आवश्यकता हमारे लिए बिल्कुल भी कम नहीं होती उसी प्रकार जो संस्कृत की उपयोगिता है वह सदैव  बनी रहेगी । संस्कृत  भाषा  को आज कई विदेशी विद्वानों ने अपनी आजीविका के साधनों में मुख्य स्थान दिया है।विदेशी जन इस समृद्ध भाषा का लाभ उठा रहे हैँ। किसी अंग्रेजी  विद्वान ने तो शिव पुराण  को अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करके अरबों की संपत्ति अर्जित की है।ये सभी बिंदु विद्वजनों के प्रेरक विचारों के कुछ अंश  हैँ जो मैंने आपके साथ बांटने का प्रयास किया है ।विज्ञान किस तरह संस्कृत भाषा में पहले से ही विद्यमान है वह मुझे संस्कृतविज्ञान प्रदर्शनी देखने पर ज्ञात हुआ। जो मैं अवश्य साझा करुँगी।



मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

अहंकार - शमन

अहंकार - शमन 
एक बार एक पढ़े - लिखे व्यक्ति नदी पार कार रहे थे । उन्होंने नाविक से पूछा -' तुम्हें व्याकरण  जानते हो ?'  नाविक ने उत्तर दिया -' नहीं । ' नाव सवार व्यक्ति ने कहा -' तुम्हारी  चार आने की जिंदगी बेकार है। ' थोड़ी देर बाद उस व्यक्ति ने दोबारा उस नाविक से पूछा कि -' क्या तुम्हें काव्य करना आता  है ? ' नाविक ने कहा
 ' नहीं। '   ' फिर तो तुम्हारी आठ आना भर की जिंदगी बेकार हो गई है । 'व्यक्ति ने नाविक से कूछ  देर बाद फिर कहा -'अच्छा तुम्हें गणित तो आता होगा ?'नाविक बोला -'नहीं ! मुझे तो गणित भी नहीं आता ।'व्यक्ति ने नाविक से कहा - ' तब तो तुम्हारी बारह आने जिंदगी व्यर्थ हो गई । '
उसी समय संयोगवश नदी में तूफ़ान उठा और नाव डगमगाने लगी ।नाविक नदी में कूद गया और तैरते हुए उसने उस व्यक्ति से पूछा कि - ' बाबूजी ! तैरना तो आप जानते ही होंगे ?' बाबूजी बोले -'नहीं। 'नाविक ने कहा 
'फिर तो आपकी जिंदगी इस समय सोलह आना पानी में है । '

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

उपनिषद् साहित्य

उपनिषद् साहित्य -
विषय की दृष्टि से वेदों के तीन भाग हैं जो कि तीन काण्ड कहलाते हैं -
१. कर्मकाण्ड
२. उपासना काण्ड
३. ज्ञानकाण्ड ।
उपनिषद् वेद का ज्ञानकाण्ड हैं । वेदों का अंतिम भाग होने की कारण इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है । उपनिषदों में ही वेद का सर्वोत्कृष्ट  सारतत्व और प्रधान लक्ष्य निहित है । मानव जीवन का लक्ष्य पारमार्थिक सत्य का ज्ञान प्राप्त करना है ,जिसके लिए उपनिषद् प्रमाण ग्रन्थ हैं । उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अंतर्गत  ब्रह्मयज्ञ के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं । उपनिषद् हमारे लिए उस आध्यात्मिक प्रकाश का साधन हैं ,जिससे परम सत्य का स्वरूप उद्घाटित होता है ,मानव का मन निर्मल होता है । उपनिषदों के विषय बहुत गूढ़ ,जनसाधारण की समझ से परे और अनेक शंकाओं को उत्पन्न करने वाला है । उपनिषदों का ज्ञान रहस्यमय और गुह्य है ।
उपनिषद् नाम  -
उपनिषद् नाम के निर्वचन उसके मूल स्वरूप एवं विषय के सम्यक् अभिव्यञ्जक हैं । उपनिषद् शब्द उप (निकट )और नि (नीचे )उपसर्गपूर्वक सद् (बैठना )धातु में क्विप् प्रत्यय लगाने से सिद्ध होता है । इसका अर्थ है -गुरु के समीप रहस्य ज्ञान की प्राप्ति की लिए नीचे बैठना । तात्पर्य यह है कि उपनिषद् वह विद्या है जो योग्य अन्तेवासी शिष्य द्वारा गुरु के अत्यंत निकट नीचे बैठकर प्राप्त की जाती है क्योंकि वह अत्यंत गुप्त और गूढ़ है । उपनिषद् भाष्यकार आद्य शंकराचार्य के अनुसार उपनिषद् शब्द उप और नि उपसर्ग पूर्वक सद्(विशरण ,गति और अवसादन )धातु में क्विप् प्रत्यय लगकर निष्पन्न हुआ है ,और इसका शाब्दिक अर्थ है ब्रह्मविद्या जो  परिशीलन द्वारा मुमुक्षुजनों की संसारबीजभूता अविद्या का विनाश (विशरण ) करती है ,जो उन्हें ब्रह्म के पास पहुँचा देती है ,और जो उनके पुनर्जन्म करने वाले कर्मों तथा गर्भवास आदि दुःखों को सर्वथा शिथिल कर देती है ।
सयाण लिखते हैं -
वेदान्तोपनिषद् वाक्यानि । 
वेदान्तसार में कहा है -
वेदनतोनामोपनिषद् प्रमाणम् । 
अथर्ववेद में १९.१४. १ में 'उपनिषेदुः'  शब्द  आता है तथा ऋग्वेद ९. ११. ६ में  ' नमसा उपसीदत ' इन पदों के दर्शन से उपनिषदों की वैदिकता स्वयं सिद्ध है । सामान्यतः वैदिक साहित्य नाम से वेद,आरण्यक ,ब्राह्मण
और उपनिषद् का ही स्मरण होता है । उपनिषदों की वैदिकता के सम्बन्ध में वानप्रस्थ प्रकरण में मनु महाराज कहते हैं - 
एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रोवने वसन् । 
विविधाश्चौपनिषदीरात्मंससिद्धये  श्रुतीः ॥ मनु.६ . २८  
 उपनिषदों में कहा गया है कि यह ज्ञान पुत्र और शिष्य से भिन्न किसी को नहीं दिया जाना चाहिए ।
तमेतं नापुत्राय वाऽनन्तेवासिने वा ब्रूयात् । 
कीथ के शब्दों में ''उपनिषद् शब्द जब किसी ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त होता है ,तब सामन्यतया इस बात का बोध कराता है कि यह मुख्यतया विश्व एवं आत्मा अथवा ब्रह्म से सम्बद्ध संवाद को प्रस्तुत करता है ।''
ए. बी.कीथ,वैदिक धर्म एवं दर्शन पृ.६१२
उपनिषदों की संख्या -
उपनिषद् साहित्य बहुत विशाल है क्योंकि यह बहुत बाद तक विकसित होता रहा है । इनकी संख्या विद्वजनों में मतभेद का विषय है । मुक्तिकोपनिषद् में कहा गया है की १०८ उपनिषदों के अध्ययन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है -
सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम् । 
सकृच्छ्रवणमात्रेण सर्वाधौधनिकृन्तनम् ॥ मुक्तिकोपनिषद् १. ३०. ३९ 
प्रमुख उपनिषद् -
मुख्य रूप से दस उपनिषद् सर्वाधिक प्राचीन और प्रामाणिक माने जाते हैं । आचार्य शङ्कर ने इन दसों उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है -
  ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः ।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकम् तथा ॥ (मुक्तिकोपनिषद् १. ३०)
ये ही उपनिषद् प्राचीन तथा प्रामाणिक माने जाते हैं । इनके अतिरिक्त कौषीतकि उपनिषद् ,श्वेताश्वतर उपनिषद् ,तथा मैत्रायणीय उपनिषद् भी प्राचीन स्वीकृत हैं । आचार्य शङ्कर ने ब्रह्म सूत्र भाष्य में दशोपनिषद् के साथ प्रथम दोनों को भी उद्धृत किया है ,किन्तु उन्होनें इन पर भाष्य की रचना नहीं की है । श्वेताश्वतर उपनिषद् पर जो शांकर भाष्य है ,वह आदि शंकराचार्य का नहीं है । इस प्रकार ये ही तेरह उपनिषदें वेदांत तत्व की प्रतिपादिका होने से विशेष श्रद्धेय हैं ।